Eid-ul-Adha 2025: बकरीद पर इन जानवरों की नहीं दी जाती है कुर्बानी, जानिए क्या हैं इस्लाम के नियम?

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Eid-ul-Adha 2025: ईद-उल-अज़हा इस्लाम का पवित्र त्योहार है, जो हज़रत इब्राहीम अ.स. की कुर्बानी की याद में मनाया जाता है. इस्लाम के अनुसार इस दिन इन जानवरों की कुर्बानी नहीं दी जाती है, जानिए क्या हैं नियम

ईद-उल-अज़हा पर किन जानवरों की कुर्बानी नहीं की जा सकती, जाने क्या कहते हैँ मौलान
वसीम अहमद /अलीगढ़. ईद-उल-अज़हा, जिसे बकरीद भी कहा जाता है, इस्लाम का एक पवित्र त्योहार है, जो न सिर्फ अल्लाह की बंदगी का इज़हार है, बल्कि त्याग, ईमान और इंसानियत की गहराई को भी दर्शाता है. इस्लामी मान्यताओं के अनुसार यह त्योहार हज़रत इब्राहीम अ.स. की उस आज़माइश की याद में मनाया जाता है, जब उन्होंने अल्लाह के हुक्म पर अपने प्यारे बेटे हज़रत इस्माईल अ.स. की कुर्बानी देने का इरादा कर लिया था. तब अल्लाह ने उनकी सच्ची नीयत को देखते हुए बेटे की जगह एक जानवर भेजा और तभी से मुसलमान इस दिन जानवरों की कुर्बानी देकर उस सुन्नत को ज़िंदा रखते आ रहे हैं.
जानकारी देते हुए अलीगढ़ के मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना इफराहीम हुसैन बताते हैं कि कुर्बानी का यह अमल सिर्फ जानवर ज़बह करने का नाम नहीं है. इसके पीछे एक गहरी सोच, साफ नीयत और शरीयत के तय किए गए उसूलों का पालन जरूरी होता है. इस्लाम में हर काम का मक़सद इंसाफ, रहम और साफ नियत होता है और यही बात कुर्बानी पर भी लागू होती है. इसलिए शरीअत ने साफ-साफ बताया है कि किन जानवरों की कुर्बानी दी जा सकती है और किनकी नहीं.
मौलाना इफराहीम हुसैन ने बताया कि हर मुसलमान की यह ज़िम्मेदारी है कि वह कुर्बानी से पहले यह समझ ले कि कौन-से जानवर इस अमल यानी कि कुर्बानी के लिए योग्य हैं. कुर्बानी के लिए जानवर न सिर्फ शरीयत के नियमों के हिसाब से होना चाहिए. बल्कि वह सेहतमंद, बिना किसी शारीरिक कमी जैसे अंधा, लंगड़ा या बीमार न हो और 1 साल की उम्र से कम नहीं होना भी ज़रूरी है. ऐसे जानवर जिनमें शरीअत के खिलाफ कोई ऐब हो जैसे अंधापन, बीमारी, लंगड़ापन या कोई बड़ा शारीरिक नुक़्स उनकी कुर्बानी करना नाजायज़ और नामंज़ूर है.
मौलाना ने कहा कि इसके अलावा कुछ जानवर ऐसे भी होते हैं, जिन्हें इस्लाम में कुर्बानी के लिए ही हराम करार दिया गया है, जैसे पालतू जानवर जिनका मकसद व्यापार, बोझ ढोना या दूध देना हो, या फिर ऐसे जानवर जिनका खान-पान हराम हो गया हो. इस विषय को समझना सिर्फ एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि एक इंसानी ज़िम्मेदारी भी है, ताकि कुर्बानी का अमल पाक, मक़बूल और रहमत का सबब बन सके.