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रोहित वेमुला बिल.. क्या राहुल गांधी साध रहे यूपी-बिहार पर निशाना? 10 बनाम 90 की लड़ाई में किसका होगा फायदा

लखनऊ : साल 2016 में आत्महत्या करने वाले दलित पीएचडी छात्र रोहित वेमुला के नाम पर कर्नाटक सरकार एक बिल लाने जा रही है. यह विधेयक मुख्यमंत्री सिद्धारमैया विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान पेश कर सकते हैं. हालांकि यह बिल अभी कर्नाटक में पेश नहीं हुआ है, लेकिन राहुल गांधी इसे पूरे देश में लागू करवाना चाहते हैं. लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी को पत्र लिखकर ‘रोहित वेमुला एक्ट’ लागू करने का आग्रह किया है. वहीं, राजनीति के जानकारों का मानना है कि राहुल गांधी इस बिल के माध्यम से यूपी और बिहार में पार्टी की स्थिति सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, जहां पार्टी लगभग 30 सालों से कमजोर है. आइए जानते हैं कि क्या है रोहित वेमुला बिल और कांग्रेस पर लग रहे आरोपों का कारण क्या है?

गौरतलब है कि रोहित वेमुला बिल एक प्रस्तावित कानून है, जिसका उद्देश्य उच्च शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न को रोकना है. यह बिल रोहित वेमुला की दुखद आत्महत्या के बाद प्रस्तावित किया गया, जो हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी छात्र थे. 2016 में कथित रूप से जातिगत भेदभाव के कारण उन्होंने आत्महत्या कर ली थी. यह एक्ट विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, मुस्लिम और अन्य वंचित समुदायों के छात्रों के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया है.

क्या है इस बिल के प्रावधान?

कर्नाटक सरकार के इस बिल के अनुसार, सामान्य वर्ग के छात्रों को छोड़कर बाकी सभी के लिए यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय को अन्याय से बचाने के लिए प्रावधान बनाए गए हैं. इस बिल के प्रावधानों के अनुसार, कोई भी पीड़ित या फिर उसके परिवार का व्यक्ति सीधे पुलिस में शिकायत दर्ज कर सकता है. बिल में किसी भी तरह के भेदभाव को गैर-जमानती और संगीन अपराध माना गया है.

क्यों लग रहे हैं राहुल गांधी पर आरोप?
अब बात करें आगे की तो यूपी और बिहार की राजनीति में कांग्रेस 1990 के दशक से गायब है. आजादी के बाद से लेकर 1990 तक कांग्रेस बिहार की सत्ता में आती और जाती रही है, लेकिन मंडल की सियासत ने कांग्रेस की जमीन को बंजर बना दिया. इसके बाद से वह दोबारा सत्ता में वापसी नहीं कर पाई है. वहीं यूपी में कांग्रेस के अंतिम मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी थे. 1990 के दशक में मंडल और कमंडल की लड़ाई में कांग्रेस यूपी और बिहार की सत्ता से ऐसी गायब हुई कि फिर वापसी नहीं कर पाई. हालांकि 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने रणनीति बदली और अखिलेश यादव की पीडीए की लड़ाई में शामिल हो गई और 6 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही.

10 सालों में बदली कांग्रेस की रणनीति

उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में जाति एक बड़ा फैक्टर है. अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो मंडल आयोग के बाद राजनीति की दशा और दिशा ही बदल गई. यूपी में जहां सपा और बसपा ने 1990 के बाद अपनी पकड़ बनाई, वहीं बिहार में राजद और जेडीयू ने. अब कांग्रेस को यह लगने लगा है कि बिना जातिगत राजनीति के उत्तर प्रदेश और बिहार में सत्ता में वापसी संभव नहीं है और पिछले 10 सालों में उसने काफी प्रयोग शुरू किए हैं. जैसे आरक्षण की सीमा बढ़ाने का प्रयास और जातिगत जनगणना की मांग. हालांकि आजादी के बाद से कांग्रेस इन दोनों बातों की धुर विरोधी रही है. गौरतलब है कि मंडल आयोग और काका कालेकर समिति की रिपोर्ट को तो इंदिरा गांधी ने थोड़ा भी महत्व नहीं दिया.

यूपी में 10 बनाम 90 की लड़ाई?
यूपी में हुकुम सिंह कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, ओबीसी की जनसंख्या 50 प्रतिशत से ऊपर है. वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या में अनुसूचित जातियों का प्रतिशत 20.70% है, जबकि 19 प्रतिशत मुस्लिम हैं. अगर इन तीनों को जोड़ दिया जाए तो कुल प्रतिशत लगभग 90 हो जाता है. कांग्रेस को लगता है कि रोहित वेमुला बिल पास होने से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के वोटर लामबंद होंगे और लड़ाई 10 के मुकाबले 90 की होगी. जिसका सीधा फायदा कांग्रेस को होगा, वहीं बीजेपी को बड़ा नुकसान हो सकता है.

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